यह छोटा सा परिवार भी क्या ही सुन्दर है, सुहावने आम और जामुन के वृक्ष चारों ओर
से इसे घेरे हुए हैं। दूर से देखने में यहॉँ केवल एक बड़ा-सा वृक्षों का झुरमुट
दिखाई देता है, पर इसका स्वच्छ जल अपने सौन्दर्य को ऊँचे ढूहों में छिपाये हुए
है। कठोर-हृदया धरणी के वक्षस्थल में यह छोटा-सा करुणा कुण्ड, बड़ी सावधानी से,
प्रकृति ने छिपा रक्खा है। सन्ध्या हो चली है। विहँग-कुल कोमल कल-रव करते हुए
अपने-अपने नीड़ की ओर लौटने लगे हैं। अन्धकार अपना आगमन सूचित कराता हुआ वृक्षों
के ऊँचे टहनियों के कोमल किसलयों को धुँधले रंग का बना रहा है। पर सूर्य की
अन्तिम किरणें अभी अपना स्थान नहीं छोडऩा चाहती हैं। वे हवा के झोकों से हटाई
जाने पर भी अन्धकार के अधिकार का विरोध करती हुई सूर्यदेव की उँगलियों की तरह हिल
रही हैं। सन्ध्या हो गई। कोकिल बोल उठा। एक सुन्दर कोमल कण्ठ से निकली हुई रसीली
तान ने उसे भी चुप कर दिया। मनोहर-स्वर-लहरी उस सरोवर-तीर से उठकर तट के सब
वृक्षों को गुंजरित करने लगी। मधुर-मलयानिल-ताड़ित जल-लहरी उस स्वर के ताल पर
नाचने लगी। हर-एक पत्ता ताल देने लगा। अद्भुत आनन्द का समावेश था। शान्ति का
नैसर्गिक राज्य उस छोटी रमणीय भूमि में मानों जमकर बैठ गया था। यह आनन्द-कानन
अपना मनोहर स्वरूप एक पथिक से छिपा न सका, क्योंकि वह प्यासा था। जल की उसे
आवश्यकता थी। उसका घोड़ा, जो बड़ी शीघ्रता से आ रहा था, रुका, ओर वह उतर पड़ा।
पथिक बड़े वेग से अश्व से उतरा, पर वह भी स्तब्ध खड़ा हो गया; क्योंकि उसको भी
उसी स्वर-लहरी ने मन्त्रमुग्ध फणी की तरह बना दिया। मृगया-शील पथिक क्लान्त
था-वृक्ष के सहारे खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक वह अपने को भूल गया। जब स्वर-लहरी
ठहरी, तब उसकी निद्रा भी टूटी। युवक सारे श्रम को भूल गया, उसके अंग में एक
अद्भुत स्फूर्ति मालूम हुई। वह, जहाँ से स्वर सुनाई पड़ता था, उसी ओर चला। जाकर
देखा, एक युवक खड़ा होकर उस अन्धकार-रंजित जल की ओर देख रहा है। पथिक ने उत्साह
के साथ जाकर उस युवक के कंधे को पकड़ कर हिलाया। युवक का ध्यान टूटा। उसने पलटकर
देखा। भाग 2 पथिक का वीर-वेश भी सुन्दर था। उसकी खड़ी मूँछें उसके स्वाभाविक गर्व
को तनकर जता रही थीं। युवक को उसके इस असभ्य बर्ताव पर क्रोध तो आया, पर कुछ
सोचकर वह चुप हो रहा। और, इधर पथिक ने सरल स्वर से एक छोटा-सा प्रश्न कर
दिया-क्यों भई, तुम्हारा नाम क्या है? युवक ने उत्तर दिया-रामप्रसाद। पथिक-यहाँ
कहाँ रहते हो? अगर बाहर के रहने वाले हो, तो चलो, हमारे घर पर आज ठहरो। युवक कुछ
न बोला, किन्तु उसने एक स्वीकार-सूचक इंगित किया। पथिक और युवक, दोनों, अश्व के
समीप आये। पथिक ने उसकी लगाम हाथ में ले ली। दोनों पैदल ही सड़क की ओर बढ़े।
दोनों एक विशाल दुर्ग के फाटक पर पहुँचे और उसमें प्रवेश किया। द्वार के रक्षकों
ने उठकर आदर के साथ उस पथिक को अभिवादन किया। एक ने बढक़र घोड़ा थाम लिया। अब
दोनों ने बड़े दालानों और अमराइयों को पार करके एक छोटे से पाईं बाग में प्रवेश
किया। रामप्रसाद चकित था, उसे यह नहीं ज्ञात होता था कि वह किसके संग कहाँ जा रहा
है। हाँ, यह उसे अवश्य प्रतीत हो गया कि यह पथिक इस दुर्ग का कोई प्रधान पुरुष
है। पाईं बाग में बीचोबीच एक चबूतरा था, जो संगमरमर का बना था। छोटी-छोटी
सीढिय़ाँ चढक़र दोनों उस पर पहुँचे। थोड़ी देर में एक दासी पानदान और दूसरी
वारुणी की बोतल लिये हुए आ पहुँची। पथिक, जिसे अब हम पथिक न कहेंगे,
ग्वालियर-दुर्ग का किलेदार था, मुग़ल सम्राट अकबर के सरदारों में से था। बिछे हुए
पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों दासियाँ फिर एक हुक़्क़ा ले आईं
और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर चँवर करने लगीं। एक ने रामप्रसाद की ओर बहुत
बचाकर देखा। युवक सरदार ने थोड़ी-सी वारुणी ली। दो-चार गिलौरी पान की खाकर फिर वह
हुक़्क़ा खींचने लगा। रामप्रसाद क्या करे; बैठे-बैठे सरदार का मुँह देख रहा था।
सरदार के ईरानी चेहरे पर वारुणी ने वार्निश का काम किया। उसका चेहरा चमक उठा।
उत्साह से भरकर उसने कहा-रामप्रसाद, कुछ-कुछ गाओ। यह उस दासी की ओर देख रहा था।
Read more
यह छोटा सा परिवार भी क्या ही सुन्दर है, सुहावने आम और जामुन के वृक्ष चारों ओर
से इसे घेरे हुए हैं। दूर से देखने में यहॉँ केवल एक बड़ा-सा वृक्षों का झुरमुट
दिखाई देता है, पर इसका स्वच्छ जल अपने सौन्दर्य को ऊँचे ढूहों में छिपाये हुए
है। कठोर-हृदया धरणी के वक्षस्थल में यह छोटा-सा करुणा कुण्ड, बड़ी सावधानी से,
प्रकृति ने छिपा रक्खा है। सन्ध्या हो चली है। विहँग-कुल कोमल कल-रव करते हुए
अपने-अपने नीड़ की ओर लौटने लगे हैं। अन्धकार अपना आगमन सूचित कराता हुआ वृक्षों
के ऊँचे टहनियों के कोमल किसलयों को धुँधले रंग का बना रहा है। पर सूर्य की
अन्तिम किरणें अभी अपना स्थान नहीं छोडऩा चाहती हैं। वे हवा के झोकों से हटाई
जाने पर भी अन्धकार के अधिकार का विरोध करती हुई सूर्यदेव की उँगलियों की तरह हिल
रही हैं। सन्ध्या हो गई। कोकिल बोल उठा। एक सुन्दर कोमल कण्ठ से निकली हुई रसीली
तान ने उसे भी चुप कर दिया। मनोहर-स्वर-लहरी उस सरोवर-तीर से उठकर तट के सब
वृक्षों को गुंजरित करने लगी। मधुर-मलयानिल-ताड़ित जल-लहरी उस स्वर के ताल पर
नाचने लगी। हर-एक पत्ता ताल देने लगा। अद्भुत आनन्द का समावेश था। शान्ति का
नैसर्गिक राज्य उस छोटी रमणीय भूमि में मानों जमकर बैठ गया था। यह आनन्द-कानन
अपना मनोहर स्वरूप एक पथिक से छिपा न सका, क्योंकि वह प्यासा था। जल की उसे
आवश्यकता थी। उसका घोड़ा, जो बड़ी शीघ्रता से आ रहा था, रुका, ओर वह उतर पड़ा।
पथिक बड़े वेग से अश्व से उतरा, पर वह भी स्तब्ध खड़ा हो गया; क्योंकि उसको भी
उसी स्वर-लहरी ने मन्त्रमुग्ध फणी की तरह बना दिया। मृगया-शील पथिक क्लान्त
था-वृक्ष के सहारे खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक वह अपने को भूल गया। जब स्वर-लहरी
ठहरी, तब उसकी निद्रा भी टूटी। युवक सारे श्रम को भूल गया, उसके अंग में एक
अद्भुत स्फूर्ति मालूम हुई। वह, जहाँ से स्वर सुनाई पड़ता था, उसी ओर चला। जाकर
देखा, एक युवक खड़ा होकर उस अन्धकार-रंजित जल की ओर देख रहा है। पथिक ने उत्साह
के साथ जाकर उस युवक के कंधे को पकड़ कर हिलाया। युवक का ध्यान टूटा। उसने पलटकर
देखा। भाग 2 पथिक का वीर-वेश भी सुन्दर था। उसकी खड़ी मूँछें उसके स्वाभाविक गर्व
को तनकर जता रही थीं। युवक को उसके इस असभ्य बर्ताव पर क्रोध तो आया, पर कुछ
सोचकर वह चुप हो रहा। और, इधर पथिक ने सरल स्वर से एक छोटा-सा प्रश्न कर
दिया-क्यों भई, तुम्हारा नाम क्या है? युवक ने उत्तर दिया-रामप्रसाद। पथिक-यहाँ
कहाँ रहते हो? अगर बाहर के रहने वाले हो, तो चलो, हमारे घर पर आज ठहरो। युवक कुछ
न बोला, किन्तु उसने एक स्वीकार-सूचक इंगित किया। पथिक और युवक, दोनों, अश्व के
समीप आये। पथिक ने उसकी लगाम हाथ में ले ली। दोनों पैदल ही सड़क की ओर बढ़े।
दोनों एक विशाल दुर्ग के फाटक पर पहुँचे और उसमें प्रवेश किया। द्वार के रक्षकों
ने उठकर आदर के साथ उस पथिक को अभिवादन किया। एक ने बढक़र घोड़ा थाम लिया। अब
दोनों ने बड़े दालानों और अमराइयों को पार करके एक छोटे से पाईं बाग में प्रवेश
किया। रामप्रसाद चकित था, उसे यह नहीं ज्ञात होता था कि वह किसके संग कहाँ जा रहा
है। हाँ, यह उसे अवश्य प्रतीत हो गया कि यह पथिक इस दुर्ग का कोई प्रधान पुरुष
है। पाईं बाग में बीचोबीच एक चबूतरा था, जो संगमरमर का बना था। छोटी-छोटी
सीढिय़ाँ चढक़र दोनों उस पर पहुँचे। थोड़ी देर में एक दासी पानदान और दूसरी
वारुणी की बोतल लिये हुए आ पहुँची। पथिक, जिसे अब हम पथिक न कहेंगे,
ग्वालियर-दुर्ग का किलेदार था, मुग़ल सम्राट अकबर के सरदारों में से था। बिछे हुए
पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों दासियाँ फिर एक हुक़्क़ा ले आईं
और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर चँवर करने लगीं। एक ने रामप्रसाद की ओर बहुत
बचाकर देखा। युवक सरदार ने थोड़ी-सी वारुणी ली। दो-चार गिलौरी पान की खाकर फिर वह
हुक़्क़ा खींचने लगा। रामप्रसाद क्या करे; बैठे-बैठे सरदार का मुँह देख रहा था।
सरदार के ईरानी चेहरे पर वारुणी ने वार्निश का काम किया। उसका चेहरा चमक उठा।
उत्साह से भरकर उसने कहा-रामप्रसाद, कुछ-कुछ गाओ। यह उस दासी की ओर देख रहा था।
Read less